“वन्देमातरम” राष्ट्रगीत के रचयिता हैं बंकिमचंद्र चटर्जी
लखनऊ। देश में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने ‘वन्देमातरम’ यह राष्ट्रगीत ना सुना हो। बंकिमचंद्र ही तो हैं इसके रचयिता। उन्होंने बहुत से उपन्यास लिखे हैं। उनमे से एक का नाम है आनंदमठ। यह गीत उसी पुस्तक में है। इस पुस्तक में स्वतंत्रता – संग्राम का चित्रण किया गया है। आज़ादी की लड़ाई की एक झाँकी इस पुस्तक में देखने को मिलती है।
बंकिमचंद्र चटर्जी का जन्म कंतलपाड़ा नामक ग्राम में, 27 जून सन 1838 को हुआ था। यह स्थान बंगाल प्रान्त के चौबीस परगना जिले में है। इनके पूर्वज बड़े विद्वान् ब्राम्हण थे। उनके यहाँ हमेशा यज्ञ हुआ करते थे। इनके पिता यादवचन्द्र मिदनापुर के डेप्युटी कलेक्टर थे। माता बड़ी स्नेहमयी साध्वी स्त्री थी। बांग्ला भाषा में बंकिमचन्द्र का अर्थ होता है दूज का चाँद। दूज का चाँद दिन प्रति दिन बढता जाता है। धरती चांदनी से जगमगाने लगती है। बंकिमचन्द्र का यश भी दूज के चाँद सा दिन प्रति दिन बढ़ता ही गया। माता – पिता की ऐसी ही अभिलाषा थी। इसलिए उनका नाम बंकिमचन्द्र ही रखा गया।
सन 1856 में इन्होने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कालेज में प्रवेश किया। दूसरे ही वर्ष, सन 1857 में देश की सेना ने स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया। इस समय कलकत्ता का वातावरण बड़ा उलझन भरा था। बंकिमचन्द्र ने अपनी पढाई में बाधा न आने दी। उन्होंने तथा उनके मित्र यदुनाथ बोस ने बी. ए. पास कर लिया। बी.ए. पास होते ही कलकत्ता के लेफ्टी. गव्हर्नर ने इन्हें डेप्युटी कलेक्टर के पद पर नियुक्त कर दिया। अपने पिता, यादवचन्द्र के कहने पर उन्होंने इस पद को स्वीकार किया था। इनकी अवस्था तब केवल बीस वर्ष की थी।उन्होंने, इसी बीच, कानून की भी परीक्षा पास कर ली। स्मरण रहे उनके पिता भी डेप्युटी कलेक्टर थे।
कानून का ज्ञान प्राप्त होने पर इन्हें डेप्युटी मजिस्ट्रेट बनाया गया। बत्तीस वर्ष सरकारी नौकरी करके ये सन १८९१ में निवृत्त हुए। उस समय अधिकांश अधिकारी अंग्रेज ही रहा करते थे , क्योंकि अपने देश पर तब उन्हीं का शासन था। अंग्रेजों को इस बात का बड़ा गर्व था।
बंकिमचन्द्र भी बड़े सजग अधिकारी थे और ये कभी भी अंगेजों के आगे झुके नही। अगर वे अंग्रजों से डर जाते तो क्या आनंदमठ तथा ‘वन्देमातरम’ सा देशभक्ति पूर्ण गीत लिख सकते थे ? वे निडर थे, कट्टर थे, तभी तो अंग्रेज अदिकारी इनसे असंतुस्ट थे। कदम – कदम पर उनसे संघर्ष होता, परिणाम यह हुआ कि और ऊँचे ओहदे तक ये परिश्रम करने के बढ भी कभी नहीं पहुँच सके।
घटना उस समय की है जब वे डेप्युटी मजिस्ट्रेट थे। उस समय मनरो नामक अंग्रेज कलकत्ता का कमिश्नर था। एक बार अचानक,ईडन बगीचे में बंकिमचन्द्र की मनरो से भेंट हो गई। बंकिमचन्द्र सलामदुआ किये बगैर सीधे आगे बड़ गये। इस रूखे व्यवहार से मनरो इतना बौखला गया कि उसनेइनकी कलकत्ता से बदली कर दी। नौकरी के दौरान ये कभी एक जगह टिक न सके। उनका स्वाभिमान अंग्रेजों को खलता था इसलिये धीरे-धीरे बंकिमचन्द्र बंगला भाषा के सिद्धहस्त लेखक हो गये। इनके उपन्यास, कविताएँ बहुत ही लोकप्रिय हुई। इनके लेख निष्पक्ष विचारकों के लिये प्रेरक होते थे। देश की सभी भाषाओं में इनके उपन्यासों का अनुवाद हो चुका है।
बंकिमचन्द्र इतने बड़े लेखक कैसे बन गये? वे स्वयं तो कहते हैं कि यह सिर्फ माता – पिता का आशीर्वाद है। अपने माता – पिता को वे देवतुल्य मानते थे। उनका चरण स्पर्श कर उनका चरणोंदय लिये बगैर वे कोई भी काम आरम्भ नहीं करते थे।
एक और भी बात है जिसने इनके जीवन पर काफी प्रभाव डाला। बचपन से ही ये रामायण – महाभारत के संपर्क में आये। फिर जीवन के कडुवे – मीठे प्रसंगों ने भी इन पर अमिट छाप डाली। सारी घटनाएँ, सारे प्रसंग उनके मन में अंकित हो गये। दूसरे, जगह-जगह इनकी बदली होती रही। भिन्न- भिन्न प्रकार के लोगों से पाला पड़ा। इन्हीं सभी घटनाओं की छाया इनके उपन्यासों में दिखलाई देती है। आईने में हम अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं उसी तरह नाना प्रकार के आदमियों में, घटनाओं में इन्हें देश की स्थिति का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ा। उपन्यास में आकर ये प्रसंग अमर हो गये।
जिस समय बंकिमचन्द्र ने लिखना शुरू किया उन्हीं दिनों जागृति की लहर बंगाल में आई हुई थी। अपनी हालत में उचित सुधार कैसे हो, इसके उपाय ढूढने में, बड़े-बड़े महापुरुष व्यस्त थे। इनमे से ही थे राजा राममोहनराय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर। राजा राममोहनराय सामाजिक कुरीतियों के पीछे पड़े थे। राजा राममोहनराय अंध श्रद्धाओं को नष्ट कर नये विचारों के लिये खुला वातावरण उत्पन्न हो, चेतना जागृत हो, इसलिये नई शिक्षा पद्धति लागू करने हेतु प्रयत्नशील थे। विद्यासागर बंगाली भाषा और बंगाला समाज के सुधार में व्यस्त थे। देशभक्ति की भावना सर्वत्र जोर पकड़ रही थी। सारा वातावरण अत्यंत उत्साह की लहर से व्याप्त था।
बंकिमचन्द्र ने पहले कुछ कविताएँ लिखी फिर अंग्रेजी में एक उपन्यास लिखा। इसके बाद अपनी मातृभाषा, बंगाली में लिखना आरंभ किया। नौकरी के कारण लेखन में बड़ी बाधा आती थी। अंग्रेज अफसरों ने यहाँ भी टाँग अड़ाने की कोशिश की। उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने की कोशिश की।
अत: उन्होंने निवृत्त होने की अनुमति चाही। उस समय उनकी आयु ५३ वर्ष थी। पर चूँकि अंग्रेज अधिकारी असंतुष्ट थे,वे उन्हें निवृत्त भी नहीं होने दे रहे थे। जब एक नया लेफ्टी. गवर्नर चार्लस इलियट नियुक्त हुआ तो बंकिमचंद्र उनसे मिले। उन्होंने बताया कि वे पुस्तकें लिखना चाहते हैं, अत: समय चाहिए। वे निवृत्त होना चाहते हैं। इलियट ने अनुमति दे दी। बंकिमचंद्र निवृत्त हुए तो उन्हें चार सौ रूपये प्रति माह पेंशन मिलने लगी। निवृत्त होने पर उनकी इच्छा अनेक पुस्तकें लिखने की थी। परन्तु वे लेखनकार्य को अधिक समय नहीं दे सके। उनका स्वास्थ्य ख़राब होता गया। और आयु के ५६ वें वर्ष में उनका देहांत हो गया। वह सन था १८९४। अपने अंतिम समय में दार्शनिक हो गये थे। जीवन से मोह समाप्त हो गया था। वे बीमार थे, पर उन्होंने औषधि लेना बंद कर दिया था।
डॉक्टरों ने उनसे कहा, “आप औषधि नहीं लेंगें तो आप अधिक समय जीवित नही रह सकोगे। आप तो अपनी मृत्यु को स्वयं बुला रहे हैं। ”
“पर आपसे किसने कहा कि मैं दवाई नहीं ले रहा हूँ। मैं उसका प्रयोग कर रहा हूँ।” उन्होंने कहा।
डॉक्टर चकित थे।” पर दवाई है कहाँ ? देखूँ ? ” उन्होंने कहा।
बंकिमचंद्र ने अपने पास रखी श्रीभगवतगीता उठायी और कहा, “यह रही मेरी दवाई।”
श्रीभगवतगीता के अध्ययन से उनका स्वभाव पूर्णत: परिवर्तित हो गया। उन्होंने उपन्यास लिखना बन्द कर दिया। उनका लेखन अब दार्शनिक और भगवत – भक्ति पर अधिक केन्द्रित हो गया। उन्होंने “कृष्णचरित्र ” लिखा, धर्म पर पुस्तकें लिखी, गीता और वेदों का अनुवाद उन्होंने प्रारंभ किया। परंतु वेदों का अनुवाद पूर्ण करने के पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गयी। बंकिमचन्द्र निर्मल ह्रदय के व्यक्ति थे।