आज से शुरू होगा मेला, मुख्य मेला 6 को
गोरखपुर। सैयद सालार मसूद गाजी मियां रहमतुल्लाह अलैह जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते है। समाज में एकता का संदेश देने वाले कुरीतियों को दूर करने वाले और मानव धर्म की स्थापना के लिए प्रयत्नशील अध्यात्मिक शक्ति वाले बाले मियां का मेला महानगर के बहरामपुर मुहल्ले के पास स्थित विस्तृत भूभाग पर शुक्रवार से शुरू होगा। मुख्य मेला 6 मई रविवार को है। यह मेला 4 जून तक चलेगा। मेले की तैयारियां तकरीबन मुकम्मल हो चुकी है। हर साल जेठ के महीने में यहां मेला लगता है। जहां पर आस-पास के क्षेत्रों के अलावा दूरदराज से भारी संख्या में अकीदतमंद यहां आते है। खास बात यह है कि चाहे मुसलमान हो या हिन्दू सभी अच्छी खासी तादाद में आकर पलंग पीढ़ी व कनूरी के रूप में खिराजे अकीदत पेश करते है। मेले में मनोरंजन, खान-पान से लगायत तमाम चीजें एक जगह आसानी से मिल जाती है। यह मेला काफी मशहूर है। मुख्य मेले में हजारों की तादाद में लोग जुटते हैं।M
जानिए गाजी मियां उर्फ बाले मियां को
साक्ष्यों के मुताबिक हजरत सैयद मसूद गाजी मियां (बाले मियां) रहमतुल्लाह अलैह हजरत अली करमल्लाहू वजहू की बारहवीं पुश्त से है। गाजी मियां के वालिद का नाम गाजी सैयद साहू सालार था। आप सुल्तान महमूद गजनवीं की फौज में कमांडर थे। सुल्तान ने साहू सालार के फौजी कारनामों को देख कर अपनी बहन सितर-ए-मोअल्ला का निकाह आप से कर दिया। जिस वक्त सैयद साहू सालार अजमेर में एक किले को घेरे हुए थे, उसी वक्त मुताबिक 405 हिजरी में गाजी मियां पैदा हुए। आप का वास्तविक नाम अमीर मसूद था। गाजी मियां चार साल चार माह के हुए तो पढ़ना (बिस्मिल्लाह ख्वानी) शुरु किया। हजरत इब्राहीम जैसा आपको उस्ताद मिला। आपने नौ साल की उम्र तक फिक्ह व तसव्वुफ (इस्लामी तालीम) की शिक्षा हासिल की साथ ही साथ फौजी तालिम भी ली। गाजी मियां करीब तीन साल तक विभिन्न जंगों में अपने मामू के साथ शरीक रहे। आप बहुत मिलनसार थे। हर एक से कलमाते तौहीद व सुलूक तौहीद फरमाते थे। जिसकी वजह से सब को मुहब्बत इलाही का शौक होता था। बाद नमाज एशा जब तन्हाई में होते तो वुजू करते और इबादत-ए-इलाही में मश्गूल हो जाते। लगातार रात भर जागना और खुदा की इबादत का शौक आप के रग-रग में बस चुका था। आप ऐसे सूफी-संतों की संगत में अपना जीवन व्यतीत करते थे, जिनका संसार के लौकिक विधा की अपेक्षा अलैकिक विधा पर अधिक अधिकार था। इसके अतिरिक्त आप युद्ध कला विशेषकर तीरंदाजी में भी पूर्ण अधिकार रखते थे। जब आप गजनी से वापस हिन्दुस्तान आये तो आपने राजा महिपाल से जंग में फत्ह के बाद तख्त पर बैठने से इंकार कर दिया। सारी जिम्मेदारी अपने साथियों को सौंप कर मानवता का पैगाम देने के लिए निकल पड़े। आप बहराइच के जुनूबी व मशीरिक सरहद से दाखिल हुए। यहां ऊंच-नीच, जाति-पात का बोल बाला था। आपने इन रिवाजों का विरोध किया जो यहां के राजाओं को पसंद नहीं आया। गाजी मियां जब बहराइच में तशरीफ फरमा थे तब वहां के इक्कीस राजाओं ने मिलकर आपसे बहराइच खाली करने को कहा। गाजी मियां ने कहा कि मैं यहां पर हुकूमत करने नहीं आया हूं। उसके बावजूद राजा नहीं माने। राजाओं ने मिलकर हमला कर दिया आपने बहादुरी से जंग लड़ी। बहादुरी से मुकाबला करते हुए आपने शहादत का जाम पिया। असर मगरिब के दरम्यिान इस्लामी तारीख 423 हिजरी में कम उम्र में आपकी रूह मुबारक ने इस जिस्म खाक को छोड़ कर अब्दी जिदंगी हासिल की। कहीं-कहीं आपकी शहदात की तारीख 424 हिजरी दर्ज है। आप हमेशा इंसानों को एक नजर से देखते थे। सभी से भलाई करते। दुनिया के जाने के बाद भी आपका फैज जारी है। जहां पर मजहब, ऊंच-नीच, जात-पात की दीवार गिर जाती है।
लगन के मुताल्लिक वाक़या
उस जमाने में रूधौली जिला बाराबंकी की रहने वाली बीबी साहिबा जोहरा जो पैदाइशी अंधी थी। जिनकी आंखें गाजी मियां की करामात से रौशन हो गयी। बहराइच जाने की बात करती है। यहां पर मजार की चौहद्दी तामीर करती है। जब यहां आती है तो फिर यहीं की होकर रह जाती है। आपका इंतकाल 19 साल की उम्र में जेठ माह में हुआ। साल गुजरते रहे और फिर एक दिन ऐसा आया कि इस दिन को लोगों ने लगन के नाम से मंसूब कर दिया।
आस्ताने आलिया पर बादशाहों की हाजिरी
रिवायत के मुताबिक बहराइच स्थित हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां के मजार शरीफ पर मुहम्मद शाह तुगलक, प्रसिद्ध पर्यटक इब्नेबतूता और तुगलक वंश के सम्राट फिरोज शाह तुगलक, नसरूद्दीन महमूद फिरोज शाह तुगलक, अकबर आदि ने हाजिरी दी।