जंग-ए-बद्र के 313 सहाबा की मदद को फरिश्ते जमीन पर उतरे 

17 मार्च 624 ईसवीं को “जंग-ए-बद्र” हक (सत्य) और बातिल (असत्य) के बीच हुई

गोरखपुर। शहर की कई मस्जिदों में रमज़ान का विशेष दर्स जारी है। रविवार को तीन मस्जिदों में ‘जंग-ए-बद्र’ की दास्तां बयां की गयी।

मस्जिद खादिम हुसैन तिवारीपुर के इमाम कारी अफजल बरकाती ने कहा कि 17 रमजानुल मुबारक सन् 2 हिजरी मुताबिक 17 मार्च 624 ईसवीं को ‘जंग-ए-बद्र’ हक (सत्य) और बातिल (असत्य) के बीच हुई। जिसमें 313 सहाबा-ए-किराम की मदद के लिए फरिश्ते जमीन पर उतरे। ‘जंग-ए-बद्र’ में इस्लाम की फतह ने इस्लामी हुकूमत को अरब की एक अज़ीम कुव्वत (ताकत) बना दिया। इस्लामी इतिहास की सबसे पहली जंग मुसलमानों ने खुद के बचाव (वॉर ऑफ डिफेंस)  में लड़ी। मुसलमानों की तादाद 313 थीं। वहीं बातिल कुव्वतों का लश्कर मुसलमानों से तीन गुना से ज्यादा था। उन्होंने कहा कि 17 मार्च 624 ईसवीं को ‘जंग-ए-बद्र’ हक (सत्य) और बातिल (असत्य) के बीच हुई। इस जंग में कुल 14 सहाबा-ए-किराम (पैगम्बर-ए-इस्लाम के साथी) शहीद हुए। इसके मुकाबले में कुफ्फार (असत्य ताकत) के 70 आदमी मारे गए। जिनमें से 36 हजरत अली रजियल्लाहु अन्हु के हाथों जहन्नम पहुंचे।

इस जंग में कुल 14 सहाबा-ए-किराम (पैगम्बर-ए-इस्लाम के साथी) शहीद हुए

नूरी जामा मस्जिद अहमद नगर चक्शा हुसैन में मौलाना शादाब अहमद रज़वी ने कहा कि ‘जंग-ए-बद्र’ में मुसलमानों की तादाद कुल 313 थी। किसी के पास लड़ने के लिए पूरे हथियार भी न थे। पूरे लश्कर के पास सिर्फ 70 ऊंट और दो घोड़े थे। जिन पर सहाबा बारी-बारी सवारी करते थे। मुसलमानों का हौसला बुलंद था। अल्लाह के फजल से अजीम कामयाबी मिली।

सब्जपोश मस्जिद जाफरा बाजार के इमाम हाफिज रहमत अली निजामी ने कहा कि ‘जंग-ए-बद्र’ में मुसलमान कुफ्फार के मुकाबले में एक तिहाई से भी कम थे और कुफ्फार के पास असलहा भी मुसलमानों से ज्यादा था। इसके बावजूद भी नुसरते इलाही की बदौलत कामयाबी ने मुसलमानों के कदम चूमे। उन्होंने कहा कि कुरआन शरीफ में हैं कि “और यकीनन अल्लाह ने तुम लोगों की मदद फरमायीं बद्र में, जबकि तुम लोग कमजोर और बे सरोशामां थे पस तुम लोग अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम शुक्रगुजार हो जाओ”।